बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली आया था, तब मैं अपने माँ, पापा और रिश्तेदारों को ख़त लिखा करता था, ख़त लिखते ही बड़ी उत्सुकता से postman का इंतज़ार करता. ख़त की शुरुवात छोटी छोटी बातों से होती थी, जैसे सेहत, मौसम, पढ़ाई और तब जाकर असल मुद्दा यानि काम की बात लिखी जाती थी. लेकिन अब, लोगों का संपर्क करने का तरीक़ा बिलकुल मशीन की तरह हो गया है- अब लोग सीधा सीधा काम की बात करते हैं जिसमे कोई भावना नहीं होती, शायद इसलिए के सब बहुत जल्दी में हैं.
अपनी ही बनाई हुई इस Digital दुनिया में क्या हमलोग बहुत तेज़ी से खुद को ही खुद से अलग नहीं कर रहे हैं ?
तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)
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