कुछ बक़ाया करती है ना कुछ उधर देती है,
दुकान ग़रीबी को कब, कोई इख्तेयारदेती है !
अपना क़र्ज़ वसूलने चले आते है, तीस दिन,
पहली तारीख हमें जब, अथ में पगार देती है !
यहाँ तो ज़िन्दगी से लड़ते रहते हैं, सातों दिन,
ज़िन्दगी कब रहम खाकर, हमें इतवार देती है !
दाल-सब्जी का ज़ायेका, मेरी भूक क्या जाने,
ये तो रोटी नमक खाकर, दिन गुज़ार देती है !
हम तो किसी भी खबर का हिस्सा नहीं बनते,
हम जैसों को ज़िन्दगी, चुपचाप मार देती है !
काश, मैं भूका ही मरुँ तो घर का भला हो,
सुना है यूँ मरने पर, मुआवज़ा सरकार देती है!!
-अरमान
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