Sunday, December 13, 2009

मीना कुमारी की शाएरी


पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरात की सदके की सहर होती

सांस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है

जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख़्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है

ग़म ही दुश्मन है मेरा ग़म ही को दिल ढूँढ़ता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है

एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुश्बू
कभी मंजिल कभी तम्हीद-इ-सफ़र होती है



आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा

आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा
वरना आंधी में दीया किस ने जलाया होगा

ज़र्रे ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे
एक एक बुत को खुदा उस ने बनाया होगा

प्यास जलते हुए काँटों की बुझाई होगी
रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा

मिल गया होगा अगर कोई सुनहरी पत्थर
अपना टूटा हुआ दिल याद तो आया होगा




टुकड़े टुकड़े दिन बीता, धज्जी धज्जी रात मिली


टुकड़े टुकड़े दिन बीता, धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझ को मात मिली

मातें कैसी, घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल सा साथी जब पाया, बे-चैनी भी साथ मिली





चाँद तन्हा है आसमान तन्हा


चाँद तन्हा है आसमान तन्हा
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा

बुझ गई आस छुप गया तारा
थर-थराता रहा धुंआ तन्हा

ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जान तन्हा

हम-सफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे तन्हा तन्हा

जलती बुझती सी रौशनी के परे
सिमटा सिमटा सा एक मकान तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये जहां तन्हा

Meena Kumari (1 August 1932 - 31 March 1972)

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