Friday, October 2, 2009

पूछता है आज का मजदूर,

कुछ हो नहीं रहा है कहीं,
सिर्फ बातें हो रहीं हैं,
उन्नति की, शिक्षा की, प्रगति की,
ईसा पूर्व की या २१ वीं सदी की,

पर आज भी,

मजदूर, किसान और उन के बच्चे,
करने को काम पत्थर तोड़ने का,
खाने को वही आलू कच्चे,
बारिश हो या गर्मी की लुह,
या हो शीत लहर के थपेडे,
हंस कर, रो कर या हर रोज़ मर कर,
मर जाते हैं एक दिन यूँ ही मर कर,
नेता, दानिशवर, या हम जैसे अनपद,
देखते हैं उसकी लाश पड़ी फुटपाथ पर,
बस एक बड़ा सा आह भर कर,
निकल जाते हैं उसi क्षण,
दुसरे ही क्षण येही आह....
बदल जाती है वाह वाह में,
अखबार के पहले पन्ने पर,
जब छपती है आप की तस्वीरें,
और साथ छपती हैं वो बातें,
उन्नति की, शिक्षा की, प्रगति की,

पर आज भी,

पूछता है आज का मजदूर,

कुछ हो नहीं रहा है कहीं,
सिर्फ बातें हो रहीं हैं,
उन्नति की, शिक्षा की, प्रगति की,
ईसा पूर्व की या २१ वीं सदी की,
तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)

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