दुखडा सुनाता उनको कम अज कम एकबार,
महबूबा, न करे नफरत, न प्यार को राजी
माँ बाप, जो हो गए पहले ही माजी,
अब न तकरार, इजहार और न कोई प्यार,
गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार,
क्यूं कर करे कोई एय्तेबार मुझपर,
तंज़ कसे जाते हैं बार बार मुझ पर,
शिकयेतों का पुलिंदा, हो के घोडे पे सवार,
गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार,
चला जाऊँ इस दुनिया से तो कहलाऊं बुज्दील,
बाद लुटा चुकने के सबकुछ, हुआ न कोई एक दिल,
कहाँ जाऊँ, अब तू ही बता ए मेरे पर्वादिगार,
गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार
तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)
No comments:
Post a Comment