Friday, October 2, 2009

चल रे एक सपना देखें

चल रे एक सपना देखें,
कहीं कोई अपना देखें
एक देस नहीं, एक शहर नहीं,
एक क़स्बा तो अपना देखें,

चल रे एक सपना देखें,

करे जो हम से हमरी बात,
रहे जो हरदम हमरे साथ ,
ना मज़हब, ना हो कोई जात,
आदमी ना सही, ऐसा खुदा देखें,

चल रे एक सपना देखें
तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)

पूछता है आज का मजदूर,

कुछ हो नहीं रहा है कहीं,
सिर्फ बातें हो रहीं हैं,
उन्नति की, शिक्षा की, प्रगति की,
ईसा पूर्व की या २१ वीं सदी की,

पर आज भी,

मजदूर, किसान और उन के बच्चे,
करने को काम पत्थर तोड़ने का,
खाने को वही आलू कच्चे,
बारिश हो या गर्मी की लुह,
या हो शीत लहर के थपेडे,
हंस कर, रो कर या हर रोज़ मर कर,
मर जाते हैं एक दिन यूँ ही मर कर,
नेता, दानिशवर, या हम जैसे अनपद,
देखते हैं उसकी लाश पड़ी फुटपाथ पर,
बस एक बड़ा सा आह भर कर,
निकल जाते हैं उसi क्षण,
दुसरे ही क्षण येही आह....
बदल जाती है वाह वाह में,
अखबार के पहले पन्ने पर,
जब छपती है आप की तस्वीरें,
और साथ छपती हैं वो बातें,
उन्नति की, शिक्षा की, प्रगति की,

पर आज भी,

पूछता है आज का मजदूर,

कुछ हो नहीं रहा है कहीं,
सिर्फ बातें हो रहीं हैं,
उन्नति की, शिक्षा की, प्रगति की,
ईसा पूर्व की या २१ वीं सदी की,
तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)

छोटी सी उम्र में थक सा गया हूँ मैं

छोटी सी उम्र में थक सा गया हूँ मैं,
मौत से पहले ही मर सा गया हूँ मैं,

बच्म्पन में ही ज़ईफ़ हो चूका हूँ मैं,
कितने अजीजों की मौत पे रो चूका हूँ मैं,

बेटा, भाई, आशिक, न इंसान बन सका हूँ मैं,
ज़िन्दगी अपनी यूँ ही तुर्बत में ला चूका हूँ मैं,

अब न दो ताने बेवकूफ को ए दुनिया वालों,
के कभी न जागने के लिए सो चूका हूँ मैं
तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)

गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार

गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार,
दुखडा सुनाता उनको कम अज कम एकबार,

महबूबा, न करे नफरत, न प्यार को राजी
माँ बाप, जो हो गए पहले ही माजी,
अब न तकरार, इजहार और न कोई प्यार,
गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार,

क्यूं कर करे कोई एय्तेबार मुझपर,
तंज़ कसे जाते हैं बार बार मुझ पर,
शिकयेतों का पुलिंदा, हो के घोडे पे सवार,
गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार,

चला जाऊँ इस दुनिया से तो कहलाऊं बुज्दील,
बाद लुटा चुकने के सबकुछ, हुआ न कोई एक दिल,
कहाँ जाऊँ, अब तू ही बता ए मेरे पर्वादिगार,
गर रखते कान मेरे घर के दरो दीवार

तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)