Thursday, January 20, 2011

मुआवज़ा

कुछ बक़ाया करती है ना कुछ उधर देती है,
दुकान ग़रीबी को कब, कोई इख्तेयारदेती है !

अपना क़र्ज़ वसूलने चले आते है, तीस दिन,
पहली तारीख हमें जब, अथ में पगार देती है !

यहाँ तो ज़िन्दगी से लड़ते रहते हैं, सातों दिन,
ज़िन्दगी कब रहम खाकर, हमें इतवार देती है !

दाल-सब्जी का ज़ायेका, मेरी भूक क्या जाने,
ये तो रोटी नमक खाकर, दिन गुज़ार देती है !

हम तो किसी भी खबर का हिस्सा नहीं बनते, 
हम जैसों को ज़िन्दगी, चुपचाप मार देती है !

काश, मैं भूका ही मरुँ तो घर का भला हो, 
सुना है यूँ मरने पर, मुआवज़ा सरकार देती है!!

-अरमान 

Friday, January 7, 2011

वक़्त, साँसें, खुशबु

वक़्त, साँसें, खुशबु,
वक़्त काट ही जाता है, 
साँसें भी ले ही लेता हूँ, 
पर ये खुशबु, 
कम्बखत, 
है के,
तेरी कमी का
एहसास,
दिला ही देती है.
Bewakoof :-(