Thursday, December 17, 2009

मैं माँ बनना चाहता हूँ

मैं माँ बनना चाहता हूँ अपनी शोना का, अपनी सबसे प्यारी बहन का। मैं चाहता हूँ के उसके चेहरे की उदासी सेकेंडों में छु कर दूँ जैसे माँ कर दिया करती थी। वो सारी बातें, तकलीफें उसकी उसके बताये बिना मुझे पहले से पता हो जैसे माँ को मालूम हो जाया करती थी। जैसे जब वो स्कूल से वापिस आती थी तो माँ उसके घंटी बजने से पहले ही दवाज़ा खोल देती। शोना अक्सर माँ से पूछती के माँ आप को कैसे पता चल जाता है के दरवाज़े पे मैं हूँ, तो माँ मुस्कुरा के कहती के बेटा मैं माँ हूँ। मैं "माँ" हूँ , तब शायद मुझे इस वाक्य का मतलब नहीं मालूम था लेकिन आज भली भांति जानता हूँ। अब शोना को अक्सर घंटी बजानी पड़ती है जब वो कॉलेज से आती है। खाना भी खुद ही रसोई घर से निकल कर खाना पड़ता हैं लेकिन माँ तो खाने को टेबल पर पहले से ही सजा कर रख देती थी और कभी कभी तो माँ थाली ले कर शोना के पीछे पीछे दौड़ती, भागती रहती थी ( जब शोना का मन अच्छा नहीं होता) और कहती रहती के एक कौर खा लो शोना बस एक कौर। आखिरकार माँ शोना को खिला कर ही दम लेती। और इस तरह थाली की भी सैर हो जाती थी। अब थाली का भी रंग उतरने लगा है कियूंकी उसका सफ़र भी तो अब रसोई घर से बस खाने के टेबल तक ही रह गया है। रात के खाने के बाद माँ अक्सर शोना और बाबा के साथ J.N.U की सड़कों पर टहलने निकलती थी और पीपल के पत्तों या फिर छोटे छोटे फूलों को (जो अभी अभी पेड़ों पर आये थे) देख कर खुश होती। माँ को छोटी छोटी खुशियाँ बटोरने की आदत थी। टहलते टहलते तीनों एक पेड़ के पास आ जाते और माँ उस पेड़ के टहनियों के बीच से सबको चाँद दिखाती। आज उस पेड़ को हमलोग माँ का पेड़ कहते हैं।

मैं माँ नहीं बन सका अपनी शोना का, दुनिया का कोई भी आदमी चाहे वो मर्द हो या औरत मेरी शीना का माँ नहीं बन सकता। मैं "माँ" हूँ, ये नहीं जता सकता। ये एहसास मुझे तब हुआ जब मेरी शोना मुझ से दो दिन के लिए रूठ गयी, मेरे किसी बात से नाराज़ हो गए थी शायद। मैं लगातार कोशिश करता रहा के वो मान जाये, हर वो कोशिश की जो माँ शोना को मानाने के लिए करती थी पर सफल ना हो सका। सोचता रहा के माँ तो शोना को दो मिनट में माना लेती थी।

अब शोना मान गयी है । वो मुस्कुराई तो जो सुकून मिला है मुझे वो बयान करने के लिए शायद कोई शब्द नहीं बना है अभी तक।

मैं माँ तो ना बन सका लेकिन अपनी शोना का भाई बन कर हमेशा उसके साथ रहूँगा। पहले मेरी शोना के परिवार में तीन सदस्य थे माँ, बाबा और शोना। अब चार सदस्य हैं माँ, बाबा, शोना और मैं!

तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)

Tuesday, December 15, 2009

हाय ये आदमी, आदमी ही क्यूं हो?

आदमी का सब हो पर कोई न हो
कोई बताये के वो आदमी क्या हो?

मुहब्बत की जगह रुसवाई मिले जो अगर
आदमी वो तनहा न हो तो क्या हो?

तन्हाई ही शाएरी और इबादत है
वरना भीड़ में आदमी जाने क्या हो?

आदमी आदमी, आदमी ही आदमी है
हाय ये आदमी, आदमी ही क्यूं हो?

मज़हब आदमी का आदमी के लिए
होऊं बेअमल, बेवक़ूफ़ ना हो तो क्या हो?


तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)

Sunday, December 13, 2009

मीना कुमारी की शाएरी


पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है

पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरात की सदके की सहर होती

सांस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है

जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख़्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है

ग़म ही दुश्मन है मेरा ग़म ही को दिल ढूँढ़ता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है

एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुश्बू
कभी मंजिल कभी तम्हीद-इ-सफ़र होती है



आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा

आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा
वरना आंधी में दीया किस ने जलाया होगा

ज़र्रे ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे
एक एक बुत को खुदा उस ने बनाया होगा

प्यास जलते हुए काँटों की बुझाई होगी
रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा

मिल गया होगा अगर कोई सुनहरी पत्थर
अपना टूटा हुआ दिल याद तो आया होगा




टुकड़े टुकड़े दिन बीता, धज्जी धज्जी रात मिली


टुकड़े टुकड़े दिन बीता, धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझ को मात मिली

मातें कैसी, घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल सा साथी जब पाया, बे-चैनी भी साथ मिली





चाँद तन्हा है आसमान तन्हा


चाँद तन्हा है आसमान तन्हा
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा

बुझ गई आस छुप गया तारा
थर-थराता रहा धुंआ तन्हा

ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जान तन्हा

हम-सफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे तन्हा तन्हा

जलती बुझती सी रौशनी के परे
सिमटा सिमटा सा एक मकान तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये जहां तन्हा

Meena Kumari (1 August 1932 - 31 March 1972)

Wednesday, December 2, 2009

Bhopal Express

आज 2 दिसम्बर है और आज के ही दिन ठीक 25 साल पहले Bhopal में एक शर्मनाक , दिल दहला देने वाला हादसा हुआ था. Chemical Industry का "Hiroshima" कहा जाने वाला इस Disaster पर अंग्रेजी में Rahul Verma द्वारा लिखा नाटक Bhopal को Late Habib Tanvir ने "ज़हरीली हवा" के नाम से किया है और Bahroop ने "यहाँ से शहर को देखो" के नाम से। हालांके जब ये हादसा हुआ था तब मैं बहुत छोटा था और इतनी गहराई से नहीं जानता था Bhopal gas tragedy के बारे में जितना के अब। नाटक में मुझे Warren M. Anderson की भूमिका निभाने को कहा गया जो के Bhopal Gas Disaster के समय Union Carbide के Chairman थे. मैं कुछ भी नहीं जानता था इनके बारे में, Bahroop और Research की वजह से थोडा बहुत जान पाया के कैसे आदमी पैसा कमाने के लिए किसी भी क़द का शैतान बन सकता हैं. शैतान कोई अलग प्राणी नहीं बल्कि वो इंसान ही है जो इंसान की ही बलि चढ़ा कर मुनाफा कमाना चाहता है. ये नाटक करते समय ही मुझे पता चला था के इस Disaster पर India में एक ही फिल्म बनी है और उस फिल्म पर हमारी सरकार ने Ban लगाया हुआ है. कई सालों की जद्दोजेहद के बाद मुझे ये फिल्म देखने का मौक़ा मिला जिसका नाम है Bhopal Express और जिसे Mahesh Mathai ने बनाने की हिम्मत की है. फिल्म देखते समय वो सारे दृश्य म्रेरे साथ साथ चल रहे थे जो हमलोग Rehearsal में किया करते थे.

यहाँ ये याद दिलाने की ज़रुरत तो नहीं के हमें ये कभी नहीं भूलना होगा के Union Carbide की उस ज़हरीली गैस ने 8000 हज़ार लोगों को उसी वक़्त अपना दम तोड़ने पर मजबूर किया और करीब 50000 लोगों पर बुरी तरह अपना असर छोड़ा जिसे सारी दुनिया भली भांति जानती है।


आज 25 साल के बाद भी Bhopal के लोग इन्साफ के लिए लड़ रहे हैं.

तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)