Monday, March 22, 2010

बचपन की लाशें




कल मैं ने अपने बचपन को देखा बहुत सारे बच्चों में, जो India Gate के पास तालाब में नहा रहे थे. मैं चुप चाप बैठ कर उन को देखने लगा, अपना बचपन याद करने लगा. थोड़ी ही देर के बाद कुछ बच्चे तैरते हुए मेरे पास आये और मुझे भिगाने लगे. मुझे भी मज़ा आने लगा और मैं उन बच्चो की और अपने बचपन की फोटो साथ साथ खींचने लगा. उन बच्चों ने भी खूब जम कर फोटो शूटींग करवाई. बहुत देर तक ये सिलसिला चलता रहा. अब बारी थी उन बच्चों के बारे में कुछ जानने की, तो मैं ने उन से बारी बारी सवाल करना शुरू किया और जैसे जैसे मुझे मेरे सवालों का जवाब मिलता गया जाने क्यूं मेरे पैर कांपने लगे, सूरज ठीक मेरे सर के उपर  मंडराने लगा और एक अजीब सी गर्मी का अहसास होने लगा. प्यास भी लगी थी शाएद, उन बच्चो की आवाज़ मेरे कानों में सवाल बन कर घुंजने लगे. ऐसा लगने लगा जैसे वह तालाब में तैरने की वजह से ख़ुशी के मारे नहीं बल्के डूबने की वजह से चिल्ला रहे हों, चीख चीख कर कह रहे हों बचा लो मुझे बचा लो. और मैं बेबस लाचार उन को डूबता हुआ देख रहा था, बस देख रहा था. मुझे लगा जैसे मैं भी तालाब में छलांग लगा दूँ और उन बच्चों के साथ डूब के मर जाऊँ.  बच्चे अभी भी चीख रहे थे, जोर जोर से चीख रहे थे तभी किसी ने मेरे मुंह पर पानी मारा और मैं होश में आया. अब भी वो बच्चे कह रहे थे के uncle और फोटो खीचों ना, एक बच्चे ने कहा के uncle मैं उपर से Jump करता हूँ तब आप मेरी फोटो खिंच लेना.  मैं उस बच्चे की तलाब में Jump करने वाली फोटो यहाँ लगा रहा हूँ.  

















जब मैं ये सोचता हुआ घर वापिस लौट रहा था के क्यूं  मेरे दिमाग में वो ख़यालात आये? वो बच्चे तो खेल रहे थे फिर क्यूं मुझे लगा जैसे वो कुछ खो रहे हैं, कोई बहुत कीमती चीज़ उनके हाथो से निकल रही है, छुट रही है, फिसल रही है.  लेकिन वो चीज़ क्या है? क्या है वो चीज़? और ये सवाल मुझे ही क्यूं सता रहा है? और भी तो लोग थे वहां, उन में से किसी को ये क्यूं नहीं लगा या महसूस भी हुआ जो मुझे हो रहा है? उन सारे सवालों का जवाब जानने के लिए मैं ने अपनी मोटरसाइकिल मोड़ी और वापिस उसी जगह पहुँच गया जहाँ वो बच्चे खेल रहे थे. आवाज़ दे कर सब को इकठ्ठा किया और उनके साथ पास के ही पार्क में बैठ गया. वो सारे काम करने वाले बच्चे थे. कोई चाय की दुकान, कोई Embroidery के कारखाने, कोई जूता बनाने की factory या तो सड़क के किनारे छोले भठूरे के ठेले पर काम करता था. Sunday होने की वजह से ये सारे बच्चे यहाँ आ कर पुरे हफ्ते की थकान मिटा रहे थे या अपना बचपन जी रहे थे. बच्चे खुश थे और बेखबर थे दुनिया से, समाज से और महरूम थे किताब से.   

मैं उस वक़्त लाशें देख रहा था, कई कई लाशें एक साथ जो मेरे इर्द गिर्द बैठे थे. उन बच्चों की बचपन की लाशें जिसमे मेरा बचपन भी शामिल है . 












तारिक हमीद (बेवक़ूफ़)

Saturday, March 20, 2010

ज़माना बहुत बद-गुमान हो रहा है,


ज़माना बहुत बद-गुमान हो रहा है,
किसी शख्स का इम्तिहान हो रहा है,

सुरीली सदायें हैं एक शोख की सी,
इलाही ! ये जलसा कहाँ हो रहा है,

बहुत हसरत आती है मुझ को ये सुन कर,
किसी पर कोई मेहरबान हो रहा है,

तीरे ज़ुल्म-ए-पिन्हाँ अभी कौन जाने?
फ़क़त आसमान आसमान हो रहा है,

इन आँखों ने इस दिल का क्या भेद खोला?
के मुज़्तर मेरा राजदान हो रहा है,

सुनूँ क्या खबर जशन -ए-इशरत का कासिद ?
जहां हो रहा है वहां हो रहा है,

वो हाल-ए-तबीयत जो बरसों छुपाया,
हर एक शख्स से अब बयान हो रहा है,

कोई  उड़ के आया, कोई छुप के आया,
पषेमान तेरा पासबान हो रहा है,

कहीं दो घडी आप शबनम में सोये,
जो रुख पर अर्क दूर-फिशां हो रहा है,

ये बेहोशियाँ “दाग”, ये ख़्वाब-ए-घफ्लत,
खबर भी है जो कुछ वहां हो रहा है