Monday, May 10, 2010

आखरी ख़त

तुम्हारे आने से पहले मैं अकेला था, अब तुम्हारे जाने के बाद मैं बिलकुल ही अकेला हो गया हूँ. मुझे छोड़ के जाने का तुम्हारा वो  फैसला बिलकुल ठीक था. अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो शायद यही करता क्यूंकि ना तो वो ज़माना रहा, ना वो तुम रहे ना वो मैं रहा, ना वो एहसास रहा और ना ही वो मोहब्बत रही.प्यार करने वाले लोग, उनके प्यार के किस्से, उनकी कुर्बानियां, ये सारी बातें तो कहानियों में ही अच्छी लगती हैं और हम दोनों तो किसी कहानी का नहीं बल्कि ज़िन्दगी का हिस्सा हैं. हम दोनों अलग अलग शारीर के मालिक हैं इसीलिए दोनों ही अलग अलग सोच रखते हैं. तुम्हारी नज़र में मेरी सोच ग़लत हो सकती है बल्कि ग़लत ही है क्यूंकि आज के ज़माने में अगर कामयाब इंसान बनना है तो झूट का सहारा तो लेना पड़ेगा, हर जगह समझौता भी करना पड़ेगा. ये अलग बात है के हम दोनों के लिए कामयाबी की अलग अलग परिभाषा  है. मैं भीड़ का हिस्सा ज़रूर हूँ मगर भीड़ की तरह नहीं सोच सकता. मैं लोगों की नज़र में गिर जाऊँ तो परवाह नहीं मगर खुद को खुद की नज़र में गिरने से बचाना है मुझे. इसे तुम खुद्घर्ज़ी कहो या खुद्दारी, ये तुम पर है. मेरे लिए कामयाबी की परिभाषा यही है के सारी बुराईयों से खुद को बचा इस दुनिया से विदा लूँ. मुझे यकीन है के मेरे जाने के बाद भी लोग मुझ पर तंज़ कसेंगें, बेवक़ूफ़ कहेंगें, कहेंगें के सारी ज़िन्दगी बेवकूफी करते करते मर गया लेकिन वो सवालों का भण्डार हमेशा जिंदा रहेगा जिसे मैं छोड़ कर जाऊंगा.


ये मेरा आखरी ख़त है उसके नाम जो कभी भी मुझे समझ नहीं पाया.


हमेशा खुश रहना.


बेवक़ूफ़ 




तारिक हमीद(बेवक़ूफ़)